विवेकानन्द और अध्यात्म


विवेकानन्द जी का नाम आते ही एक ऐसे महान हस्ती याद आती है जिन्होनें 39 वर्ष की आयु में ही समाज के लिये इतना काम कर दिया और समाज को एक दिशा दिखाकर वापस चले गये। पर क्या हम उनकी  शिक्षाओ को अपने जीवन में उतार पाये है यह बडा प्रश्न है? आज समाज जिस दौर से गुजर रहा है उसमे अध्यात्म की बडी कमी महसूस हो रही है। विदेष में रह रहे लोग अध्यात्म के तरफ बढ रहे है जबकि भारत अध्यात्म के लिये जाना जाता है, जहॉ कण कण मे भगवान बसते है वहॉ अध्यात्म खत्म होता जा रहा है।
हम कहते है ‘ मातृ देवो भव पितृ देवो भव’ अर्थात माता को भगवान समझो, और पिता को भगवान समझो’। परन्तु विवेकानन्द जी ने कहा ‘ दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवो भव,’ इन गरीबों, अनपढों, अज्ञानियों और दुःखियों को ही अपना भगवान मानो। याद रखो केवल इन की सेवा ही तुम्हारा परम धर्म है, हमें बताया गया है कि आप सभी की सेवा करे सभी में भगवान बसते है। विवेकानन्द जी ने बताया कि केवल जानकारी प्राप्त करने से ही ‘शिक्षित’ नही कहला सकते जब तक हम उसे आत्मसात न करे तब तक वो पूर्ण शिक्षा नही होती । हमें अपने विचारो को इस तरह आत्मसात कर लेना चाहिए कि उनके द्वारा हमारा जीवन निर्वाण हो सके, हमारा चारित्रिक गठन हो सके और हम मनुष्य बन सके। गावॅ गावॅ जाकर प्रत्येक घर में धर्म के साथ- साथ षिक्षा को भी पहुचाना चाहिए।  विवेकानन्द जी ने बताया कि केवल ऑख ही ज्ञान प्राप्त करने का अकेला द्वार नहीं है, कान भी वह काम करता है। इस प्रकार उनमे नये नये विचारों, नैतिकता तथा अपने उज्जवल भविष्य के प्रति आशा का संचार होगा।
पुराने धर्म में पुनरूजीवन  का संचार एक नये केन्द्र द्वारा ही हो सकता है। अपने वादो और सिद्वान्तों को ताक में रख दो, वो कुछ काम नहीं आयेगें। इस समय एक चरित्रवान, एक जीवन देवतातुल्य मनुष्य को ही केन्द्र बनकर समाज का नेतृव्य करना होगा। इस मन्दिर के साथ एक और संस्था का निर्माण करना चाहिए जिसमें ऐसे षिक्षक तैयार हो जो धर्म- प्रचार करने और संस्था का निर्माण करना चाहिए जिसमें ऐसे षिक्षक तैयार हो जो धर्म- प्रचार करने और लौकिक षिक्षा देने के हेतू सर्वत्र भ्रमण करते रहे। उन्हें दोनो ही काम करने होगे। जैसे हम धर्म का प्रचार द्वार-द्वार जाकर कर रहे है, वैसे ही लौकिक ज्ञान का प्रचार भी करना पडेगा। अब इस योजना के लिए धन  कहा से आयेगातो उन्होने बताया कि धन का कोई महत्व नही है वास्तविक आवश्यक्ता धन की नही है क्योकि वे मेरे गुलाम है न कि मैं उनका गुलाम हॅू। धनादि प्रत्येक चीज को आना ही होगा ऐसा विेवेकानन्द जी मानते थे।
हमे विवकानन्द जी के अध्यात्म के बारे में बात कर रहे है तो उन्होने बताया कि धर्म की सच्ची साधना प्रत्येक व्यक्ति का निजी विषय होना चाहिए। धर्म का सैद्वान्तिक पक्ष का विवेचन एवं प्रचलन सार्वजनिक तौर पर किया जा सकता हैं, उसे सामूहिक रूप दिया जा सकता है। किन्तु उच्चतर धर्म- साधना को सार्वजनिक रूप नही दिया जा सकता। जो किसी की चिन्ता नही करता उसके पास सब कुछ अपने आप ही आ जाता है। विवेकानन्द जी बताते है प्रत्येक कार्य को तीन अवस्थाओं से गुजरना पडता है- उपहास, विरोध और अन्त में स्वीकृति किसी योजना का निरादर कर उसे निरूत्तसाहित नही करना चाहिए। आलोचना नही सहायता करनी चाहिए जो ठीक न हो उसे ठीक कर दो क्योकि आलोचना ही समस्त उपद्रव का जड है। आज के परिवेश में उनकी बाते कितनी सार्थक है।
क्या हम आज उनकी बाते मानते है ये बडा प्रश्न है? अगर मानते तो आज जो देष में हो रहा है वो नही होता 150 वी जयन्ती मना रहे है पर देष के नौजवान भटक रहे है विवेकानन्द जी की सोच को उतारना होगा सभी को अपने जीवन में, तभी पूरा होगा उनके सपनों का भारत। विवेकानन्द जी ने का मानना था कि विपरीत स्थितियॉ ही हमारी सर्वश्रेष्ठ कसौटी होती  है, जो हमें तराशकर चमकता हुआ हीरा बना देती है। उन्होने बताया धर्म ऐहिक जीवन के लिये भी है और पारमार्थिक जीवन के लिये भी।धर्म के जिस अंग का सम्बन्ध केवल पारमार्थिक जीवन से, पारमार्थिक कल्याण से है, उसी का रिलीजन, या मजहब, या अपासना पंथ, या संप्रदाय ऐसा नाम है। ये सब धर्म के अंग है। यही विश्वधर्म है। स्वामी जी कहते है एक तो कोई धर्म ही नही रहेगा और रहेगा तो वह हिन्दू धर्म ही रहेगा। गुरू रविन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था कि, ”यदि भारत को जानना चाहते हो तो विकेकानन्द को पढो“वे ईश्वर के करीब थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना उनकी विशिष्टता थी। स्वामी जी द्वारा दिखाये गये रास्तो पर कितने लोग अमल कर रहे है, वो जो युवा वर्ग के लिये सोचते थे वो आज की पीढी नही सोचती है।
हमें भी स्वामी जी के बताये रास्तो पर चलना होगा तभी सही मायनो मे हम उनकी जयन्ती मना पायेगें  

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